कोरोना की तीसरी लहर अब तक खारिज़ नहीं हुई है। बड़ी आबादी में वायरस का एक्सपोजर हुआ नहीं है तो खतरा बरकरार है। ऐसे में अब ज्यादा जोर जीनोम सीक्वेंसिंग पर है ताकि वायरस के आकार व्यवहार और प्रकार यानी उनके वेरिएंट की जानकारी ठीक ठीक हाथ लगे। यह जानकारी स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्र ने दी है। देश की दो तिहाई आबादी में एंटीबॉडी पाई गई है लेकिन एक तिहाई पर अब भी ख़तरा बरकरार है। दूसरी लहर के पीछे डेल्टा वेरिएंट की भूमिका थी। अब तीसरी लहर को लेकर नज़र वायरस के म्यूटेशन और उससे बनने वाले नए वेरिएंट पर है। लिहाज़ा ज्यादा ज़ोर जीनोम सीक्वेंसिंग पर है। सूत्र ने बताया कि अब 28 लैबों के बाद प्राइवेट सेक्टर के लैबों को भी जोड़ने की योजना है। अब तक 41 हजार जीनोम सीक्वेंसिंग में 17 हजार केरल से और 10 हजार महाराष्ट्र के हैं। जब मामले घट रहे होते हैं तो एक समान तरीके से देश के अलग-अलग जिलों से पॉजिटिव सैंपल्स की भी चुनौती होती है।
तीसरी लहर के पीछे नए वेरिएंट और शरीर में बने एंटीबॉडी को उसका बाईपास कर जाना वजह के तौर पर देखा जा रहा है। इंडियन पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉक्टर संजय राय कहते हैं, ‘इस तरह के RNA वायरस में हमेशा म्यूटेशन होता रहता है. कौन सा म्यूटेशन कब आया, किस तेज़ी से बढ़ रहा है, इसका पता तभी लग सकता है जब जीनोम सीक्वेंसिंग करते हैं।
जीनोम सीक्वेंसिंग का जो 5% का टारगेट है वो अब पूरा हो जाएगा क्योंकि नंबर ऑफ केसेस कम आ रहे हैं। यही नहीं, आबादी की प्रतिरोधक क्षमता में गिरावट भी तीसरी लहर को न्योता देगी।
शोधकर्ताओं और जानकारों के एक तबके का मानना है कि शरीर में 6 से 10 महीने तक एंटीबॉडी रहती है। पर दूसरी लहर में दिल्ली का अनुभव बताता है कि 100-125 दिन में ही एंटीबॉडी का गिरना शुरू हो गया था। वायरस से जितना गंभीर संक्रमण होता है, शरीर में उतनी ही ज़्यादा एंटीबॉडी बनती है। शरीर में कम एंटीबॉडी अगर है तो उतनी ही जल्दी वो गिरता भी है। एक बार संक्रमण हो जाए तो फिर गंभीर संक्रमण की गुंजाइश नहीं होती।