बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशी राम पंजाब के होशियारपुर ज़िले से थे. उन्होंने यहीं से अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत की थी. कांशी राम ने पंजाब में दलितों को एकजुट करने के लिए काफ़ी मेहनत की और उनके बीच राजनैतिक जागरूकता फैलाने के लिए भी काफ़ी प्रयास किया. इसका नतीजा ये हुआ कि वर्ष 1996 में उन्हें जीत हासिल हुई. उस समय भी उनकी पार्टी का गठबंधन शिरोमणि अकाली दल के साथ था. लेकिन 1997 के चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को 7.5% प्रतिशत मत ही मिल पाए थे जो वर्ष 2017 में हुए विधानसभा के चुनावों में सिमटकर 1.5% पर आ गए.
सवाल उठता है कि जब पंजाब में दलितों की आबादी 32% के आसपास है तो फिर मूलतः दलितों के बीच काम करने वाली बहुजन समाज पार्टी को इतने कम मत कैसे मिले?
यह भी सवाल है कि जब जाट सिखों की आबादी 25% के आसपास की ही है, तो उनका दबदबा पंजाब की राजनीति में कैसे बना रहा?
इस पर मोहाली में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार विपिन पब्बी ने कहा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुसूचित जाति की आबादी भी बँटी हुई है. उनका कहना है कि जहाँ आबादी सिख दलित और हिंदू दलितों के बीच बंटी हुई है वहां सिख हिंदू दलितों के बीच भी कई समाज हैं जो अपनी अलग अलग विचारधारा रखते हैं.
पब्बी कहते हैं, “शायद यही वजह है कि इतनी मेहनत के बावजूद कांशी राम पंजाब में दलितों को एकजुट नहीं कर पाए और उन्होंने पंजाब से बहार निकलकर उत्तर प्रदेश और देश के अन्य इलाकों में दलितों के बीच काम करना शुरू किया.”
पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रोंकी राम के अनुसार कांशी राम ने पंजाब के विभिन्न दलित समाज के लोगों के बीच सामंजस्य और गठजोड़ बनाने की कोशिश ज़रूर की मगर वह कामयाब नहीं हो सके जबकि उत्तर प्रदेश में उनकी उत्तराधिकारी मायावती को इसमें अभूतपूर्व कामियाबी मिली.
उन्होंने कहा, “बहुजन समाज पार्टी का सबसे बेहतर प्रदर्शन वर्ष 1992 में रहा जब उसे 16 प्रतिशत मत मिले. लेकिन समय के साथ पार्टी का प्रभाव कम होता चला गया और वो सिमटकर पंजाब के दोआबा क्षेत्र के कुछ इलाकों में रह गयी.”
तमाम प्रयासों के बावजूद कांशी राम पंजाब में बहुजन समाज पार्टी को दलितों की पार्टी के रूप में स्थापित नहीं कर पाए क्योंकि ‘मज़हबी सिख’ यानी वो सिख जो अनुसूचित जाति से आते हैं और वाल्मीकि – इन दोनों समाज के लोगों ने हमेशा ख़ुद को इस पार्टी से अलग रखा.
आँकड़ों की अगर बात की जाए तो पंजाब की अनुसूचित जातियों में सबसे बड़ा 26.33 प्रतिशत मज़हबी सिखों का है. वहीं रामदासिया समाज की आबादी 20.73 प्रतिशत है जबकि आधी धर्मियों की आबादी 10.17 और वाल्मीकियों की आबादी 8.66 है.
चन्नी को मुख्यमंत्री बनाना “मास्टरस्ट्रोक”?
यहाँ ये सवाल उठता है कि क्या चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाना, कांग्रेस का कोई मास्टर स्ट्रोक था? इस पर राय बँटी हुई है.
वरिष्ठ पत्रकार विपिन पब्बी मानते हैं कि अब भी पंजाब में दलित पहचान कोई बड़ा मुद्दा नहीं है जबकि बड़े दलित आन्दोलन यहाँ से शुरू हुए हैं.
वह कहते हैं कि अभी समाज में सिख और हिंदू के रूप में पहचान की जाती है. चाहे वो दलित सिख हों या दलित हिंदू.
पब्बी के अनुसार कांग्रेस द्वारा किसी सिख दलित को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाना राजनीतिक रूप से उसे कितना फ़ायदा पहुंचाएगा यह अभी कहना जल्दबाज़ी ही होगी क्योंकि अभी कई पेंच फंसे हुए हैं.
संगर कहते हैं, “दलित हिंदू और दलित सिख अकाली दल और कांग्रेस को समर्थन देते आये हैं. लेकिन ऐसे में जब विधानसभा के चुनावों से ठीक पहले अकाली दल ने ये कहा कि जीत हासिल होने पर वो दलित को उप मुख्यमंत्री बनायेंगे और आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने भी ऐसी ही घोषणा की, कांग्रेस के इस क़दम को फिलहाल तो ज़रूर एक मास्टर स्ट्रोक के तौर पर देखा जा रहा है.”
पंजाब विधानसभा के कुल 117 सीटों में से 30 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं मगर बीबीसी पंजाबी के वरिष्ठ पत्रकार खुशहाल लाली कहते हैं कि कुल 50 सीटें ऐसी हैं जिनपर दलितों का मत मायने रखता है. मगर इसके बावजूद इन सीटों पर अकाली दल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का भी प्रभाव है.
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का ये भी मानना है कि चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने का ये भी परिणाम हो सकता है कि जाट सिख और हिंदू उच्च जाति के लोगों के वोट कांग्रेस से खिसक भी सकते हैं.
राजनीतिक विश्लेषक हरतोष सिंह बल ने अपने ट्वीट में इसकी चर्चा करते हुए कहा कि और राज्यों की तरह पंजाब में भी दलित वोटों का बँटवारा दूसरी जातियों के बीच होता रहा है. उनका मानना है कि रामदासिया जाति के नेता को मुख्यमंत्री बनाना कांग्रेस के लिए परेशानी भी बन सकती है क्योंकि फिर कांग्रेस को मज़हबी सिख जाति और हिंदू वाल्मीकि जाति के बीच अपनी पैठ बनाने में मुश्किल का सामना भी करना पड़ सकता है. तीसरे पक्ष की सामग्री में विज्ञापन हो सकते हैं
वह लिखते हैं, “एक दलित का पंजाब का मुख्यमंत्री बनना बहुत समय से लंबित था. ज़ाहिर है चन्नी ऐसा कार्यकाल बिलकुल नहीं चाहते होंगे जहां वो खुद को शक्तिविहीन महसूस कर रहे हों. जबकि उनके इर्द गिर्द सिद्धू बनाम रंधावा बनाम अमरिंदर बनाम जाखड़ संघर्ष चल रहा हो.”