फ्रांसीसी जब अपने अपमान से उबर जाएंगे तब उन्हें अपने आपको संयत करना होगा और कुछ कड़वी सच्चाईयों से दो-चार होना पड़ेगा. पहली बात तो ये है कि दुनिया की राजनीति में भावनाओं की कोई गुंजाइश नहीं होती है. फ्रांसीसियों को ये बात समझनी चाहिए कि उनके साथ जो बर्ताव हुआ है, उसे लेकर मातम मनाने से अब कुछ हासिल नहीं होने वाला है. क्या किसी ने कभी ऐसे देश के बारे में सुना है जो किसी को आहत न करने के लिए अपनी रक्षा प्राथमिकताओं को दरकिनार कर देता है?
सच तो ये है कि ऑस्ट्रेलिया ने ये हिसाब-किताब लगाया कि उन्होंने चीन के ख़तरे को कम करके आँका है और उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए उठाए जाने वाले कदमों को और मज़बूत करने की ज़रूरत है. क्या किसी ने कभी ऐसे देश के बारे में सुना है जो किसी को आहत न करने के लिए अपनी रक्षा प्राथमिकताओं को दरकिनार कर देता है? सच तो ये है कि ऑस्ट्रेलिया ने ये हिसाब-किताब लगाया कि उन्होंने चीन के ख़तरे को कम करके आँका है और उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए उठाए जाने वाले कदमों को और मज़बूत करने की ज़रूरत है. ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका की एक डिफ़ेंस डील से फ्रांस हुआ नाराज़, बढ़ा आपसी तनाव
फ्रांस ने जिनका साथ दिया
फ्रांस की राजनीति की एक जमात अपने देश को एक पूर्ण स्वतंत्र शक्ति के तौर पर देखती है. इस जमात में राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों भी शामिल हैं. ये तबका न्यूक्लियर क्षमता वाली मिलिट्री के साथ फ्रांस की ताक़त की मौजूदगी का एहसास दुनिया में कराना चाहता है. लेकिन असल में फ्रांस ने खुद को अमेरिकी अगुवाई वाले गठबंधन से बांध रखा है. उसे ये नैतिक और नफ़े-नुक़सान के हिसाब से भी ठीक लगता है. लेकिन फ्रांस में अब ये सवाल उठने लगा है कि आख़िर हम क्यों इसकी परवाह करें? इससे हमें क्या हासिल होने वाला है?
ल फिगारो अख़बार के अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार रेनॉड गिरार्ड कहते हैं, “ये झटका अचानक लगा है. इमैनुएल मैक्रों ने उन लोगों की मदद की काफ़ी कोशिशें की थीं. उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकियों का साथ दिया. ब्रिटेन के साथ सैनिक सहयोग किया. ऑस्ट्रेलिया की भारत-प्रशांत क्षेत्र में मदद की. वे कहते रहे कि हम आपके पीछे चल रहे हैं. हम सच्चे अर्थों में सहयोगी हैं. और मैक्रों ने ये कोशिशें न केवल बाइडन के साथ की बल्कि वे ट्रंप के साथ भी खड़े रहे थे. उन्होंने ये सब कुछ किया और अब देखिए कि क्या हो रहा है. कोई इनाम नहीं मिला. कुत्तों जैसा बर्ताव किया गया.”
‘ब्रेन-डेड’ नेटो
फ्रांस अब नेटो में अपनी भूमिका का फिर से मूल्यांकन करेगा. साल 1966 में डी गॉल ने नेटो में फ्रांस की सैनिक भागीदारी पर रोक लगा दी थी लेकिन साल 2009 ने निकोला सारकोज़ी ने इसे फिर से बहाल कर दिया.
हालांकि नेटो से दूसरी बार बाहर निकलने की फिलहाल कोई चर्चा नहीं है. लेकिन ये याद रखा जाना चाहिए कि राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों वही शख़्स हैं जिन्होंने दो साल पहले नेटो को ‘ब्रेन-डेड’ करार दिया था. वे अपना नज़रिया नहीं बदलेंगे.
फ्रांस के सामने तीसरी कड़वी हकीकत ये है कि अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उसके सामने अब कोई सीधा रास्ता नहीं बचा है.
पिछले हफ़्ते की घटनाओं का सबक ये है कि फ्रांस अपने आप में इतना छोटा मुल्क है कि वो वैश्विक मामलों में जरा सी भी खरोंच पहुँचाने की स्थिति में नहीं है. फ्रांस के पूरे बेड़े में जितने जहाज़ हैं, चीन हर चार साल पर उतने जहाज़ बना लेता है.
मिनिपावर बनाम सुपरपावर
इसलिए जब मुसीबत की घड़ी आई तो ऑस्ट्रेलिया ने एक मिनीपावर की जगह एक सुपरपावर के करीबी जाने का विकल्प चुना.
इस कूटनीतिक संकट से बाहर निकलने का जो रास्ता फ्रांस के सामने दिख रहा है, वो ये है कि उसके मिलिट्री हित यूरोप के भविष्य के साथ जुड़े हुए हैं.
यूरोपीय संघ की बड़ी आबादी है और उसके पास व्यापक तकनीकी संसाधन हैं. फ्रांस यूरोपीय संघ के जरिए अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को धरातल पर साकार कर सकता है.
लेकिन यूरोपीय संघ के बीते 30 सालों का नतीजा कुछ ज्वॉयंट ब्रिगेड्स से ज़्यादा कुछ नहीं निकला है.
रेनॉड गिरार्ड कहते हैं, “यूरोपीय संघ को एक मिलिट्री फोर्स बनाने का विचार पूरी तरह से मज़ाक ही है.”
ऐसे में फ्रांस क्या कर सकता है?
उसके सामने एक रास्ता तो ये है कि वो वास्तविकता को स्वीकार कर ले. अस्थाई गठबंधनों को बनाने की कोशिश करे. मैक्रों भारत-प्रशांत क्षेत्र में ऐसी कोशिश कर चुके हैं. जर्मनी को इस बात के लिए प्रेरित करे कि वो 20वीं सदी की गुजरे हुए अतीत से बाहर निकले और एक ताक़तवर देश की तरह बर्ताव करे, जैसे कि वो हैं.
फ्रांस को ब्रिटेन के लिए भी अपने दरवाज़े खुले रखने चाहिए. हालांकि इस मौके पर ये सुझाव आसान नहीं है. ब्रिटेन और फ्रांस के रिश्ते नाजुक दौर से गुजर रहे हैं. जो आज हो रहा है, वो बीते कई सालों में नहीं देखा गया था.
ब्रितानी प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के लिए फ्रांसीसियों के मन में आज जो अनादर की भावना है, वो छुपाने में उन्हें मुश्किल होगी. दूसरी तरफ़ लंदन में बहुत से लोग फ्रांस के बारे में ऐसा ही सोच रहे होंगे.
रेनॉड गिरार्ड कहते हैं, “आने वाले समय में ये मुमकिन है कि फ्रांस ऑकस समझौते में ब्रिटेन की भूमिका के लिए उसको सबक सिखाने की कोशिश करे. वो साल 2010 के लैंकस्टर समझौते को कमज़ोर करने की कोशिश कर सकता है.”
ब्रिटेन पर नज़रिया
फ्रांस और ब्रिटेन के बीच खुफिया परमाणु सहयोग के लिए साल 2010 में लैंकस्टर समझौता किया गया था.
दूसरे कई मुद्दों पर भी दोनों देशों की तल्खियों का असर देखने को मिल सकता है, जैसे कि प्रवासियों की आमदरफ़्त.
लेकिन ब्रिटेन के पास यूरोप की एकमात्र सीरियस मिलिट्री ताक़त है.
दोनों देशों का इतिहास और वैश्विक अनुभव एक जैसे हैं. दोनों के सैनिक एक दूसरे की इज़्ज़त करते हैं.
लंबे समय तक फ्रांस और ब्रिटेन के रक्षा सहयोग को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल रहा था.
राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को इस चौथी कड़वी सच्चाई से रू-ब-रू होना है.