विराट कोहली: बल्लेबाज़ी और कप्तानी सवालों के घेरे में

261

बल्ले से उनकी नाकामी का असर पूरी टीम की बल्लेबाज़ी पर भी साफ़ दिख रहा है. कोहली की बल्ले से नाकामी आंकड़ों से भी ज़ाहिर हो रही है. उन्होंने आख़िरी बार नवंबर, 2019 में टेस्ट शतक बनाया था. खेल के तीनों फ़ॉरमेट की पिछली 51 पारियों में वे शतक नहीं बना पाए हैं. अगर कोहली अपनी लय में होते तो लॉर्ड्स टेस्ट में ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद महज़ चार दिनों में हेडिंग्ले में भारतीय टीम पारी के अंतर से नहीं हारती. भारत और इंग्लैंड की मौजूदा सिरीज़ एक-एक से बराबरी पर है और सिरीज़ के दो मुक़ाबले अभी बाक़ी हैं. गुरुवार से ओवल में सिरीज़ का चौथा टेस्ट मैच शुरू हो रहा है, भारतीय टीम हेडिंग्ले में हार के बाद वापसी कर पाएगी या नहीं, यह काफ़ी हद तक कोहली पर निर्भर होगा.

सवाल यही है कि कोहली के बल्ले को क्या हुआ है?

स्विंग गेंदबाज़ों के सामने कोहली ऑफ़ स्टंप के बाहर की गेंदों के सामने संघर्ष करते दिख रहे हैं. ऐसा लगता है कि शाट्स खेलने के लिए जाते वक्त उन्हें अपने ऑफ़ स्टंप का अंदाज़ा नहीं रह रहा है. वे जिन गेंदों पर शाट्स खेल कर आउट हो रहे हैं, उन्हें आसानी से विकेटकीपर के दस्तानों में जाने दिया जा सकता है.

इंग्लैंड के गेंदबाज़ों ने भी उनकी इस कमज़ोरी को भांप लिया है और वे उसी लाइन लेंथ पर उनकी लगातार परीक्षा ले रहे हैं.

उनके साथ दूसरे छोर के दो अहम बल्लेबाज़ चेतेश्वर पुजारा और अजिंक्य रहाणे, इत्मीनान से खेलने के लिए जाने जाते हैं, इन दोनों को अपने शाट्स खेलने की जल्दी भी नहीं होती है. लेकिन इंग्लैंड में ये दोनों भी कोहली की तरह ही विकेट गंवा रहे हैं, यही वजह है कि भारतीय मिडिल ऑर्डर उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है.

2018 में भारत के इंग्लैंड दौर के वक्त कोहली ने दो शतक और एक बार 97 रनों की पारी खेली थी, तब जेम्स एंडरसन उन्हें एक बार भी आउट नहीं कर पाए थे. उस दौरे में कोहली गेंदों को अपने शरीर के नज़दीक खेल रहे थे और गेंद पर उनकी नज़र टिकी रह रही थी.

लेकिन इस दौरे में वो आउट स्विंग गेंदों को तो छोड़ दे रहे हैं, लेकिन ऑफ़ स्टंप की लाइन पर टप्पा खाकर बाहर निकलने वाली गेंदें उन्हें परेशान कर रही हैं. कोहली को इस मुश्किल से पार पाने के लिए मानसिक और शारीरिक दोनों पहलूओं पर काम करना होगा.

कोहली पर बल्लेबाज़ी के साथ साथ कप्तानी का भी बोझ है. लगातार टेस्ट सिरीज़ में जीत हासिल करना और बल्लेबाज़ी में बेहतर करने का दबाव तो है ही, साथ में संतुलित और प्रभावी टीम चुनने और बेहतर रणनीति बनाने की चुनौती भी उन पर ही होती है.

इंग्लैंड के माइक ब्रेयर्ली और भारत के टाइगर पटौदी जैसे कप्तान भी हुए हैं जो बल्ले से नाकामी के दौर में भी टीम को मैच जिताने वाले कप्तान साबित हुए. इस लीग में शामिल होने के लिए भारत को 2007 के बाद इंग्लैंड में पहली सिरीज़ में जीत हासिल करनी होगी. उन्हें यह साबित करना होगा कि चाहे टीम बेहतरीन प्रदर्शन कर रही हो या फिर ख़राब प्रदर्शन कर रही हो- हर स्थिति में टीम के लिए वे प्रेरक हैं.

मैदान के बाहर भी प्रभाव

कोहली अपनी कप्तानी को पूरा एन्जॉय करते हैं. उन्हें टीम पर अपनी छाप छोड़ने में भी आनंद आता है. वे टीम के साथी खिलाड़ियों के साथ भी होड़ लेते रहते हैं. कप्तान के तौर पर उनका रिकॉर्ड शानदार है. कप्तानी संभालने के बाद उनकी बल्लेबाज़ी का औसत बहुत बेहतर हुआ है.

कप्तान के तौर पर 64 टेस्ट मैचों में कोहली ने 56 से ज़्यादा की औसत से रन बनाए हैं जबकि जिन 31 टेस्ट मैचों में वे कप्तान नहीं रहे हैं, उनमें उनकी बल्लेबाज़ी का औसत 41 से थोड़ा ही बेहतर है. यहां ध्यान रहे कि 37 टेस्ट जीत के साथ वे भारत के सबसे सफल टेस्ट कप्तान हैं.

शुरुआती दौर से ही कोहली एक आक्रामक कप्तान रहे हैं. उनकी आक्रामकता का असर टीम इंडिया पर भी दिखने लगा. टीम की जीत पर जश्न मनाने का अंदाज़ हो या विपक्षी खिलाड़ियों पर छींटाकशी- आत्मविश्वास से भरे कोहली के रंग में पूरी टीम दिखाई देने लगी थी. भारतीय क्रिकेट के अंदर टीम भावना किसी भी कप्तान की तुलना में कोहली की कप्तानी में स्पष्टता से ज़ाहिर हुई है. उन्होंने पूरी टीम को कामयाबी के तीन मंत्र दे दिए- बेहतरीन फ़िटनेस, शानदार फ़ील्डिंग और टेस्ट क्रिकेट को अहमियत.

एक बार होटल में विराट कोहली के साथ एक लंच की याद है जिसमें मैंने दूसरे खिलाड़ियों को विराट कोहली की प्लेट में झांक कर वही डिश ऑर्डर करते देखा जो वो खा रहे थे. एक अच्छे टीम कप्तान की तरह मैदान के बाहर भी कोहली अपने खिलाड़ियों के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं.

कोहली का जलवा थोड़ा-सा ही सही पर फिसला है और यह उनकी ख़राब बल्लेबाज़ी के साथ उनकी आक्रामकता के चलते हुआ है.

दरअसल यह एक ऐसी शैली है जो कारगर हो, जीत दिलाए तब उचित जान पड़ती है, लेकिन जब ऐसा नहीं हो तो यह मूर्खतापूर्ण और बचकानी लगने लगती है.

बहरहाल, 32 साल के कोहली की बल्लेबाज़ी और कप्तानी दोनों सवालों के घेरे में हैं. कप्तानी के लिहाज़ से लॉर्ड्स टेस्ट में कोहली का फ़ैसला सही साबित हुआ जब उन्होंने इंग्लैंड को आख़िरी पारी में 60 ओवर बल्लेबाज़ी करने का मौका दिया. इंग्लैंड की टीम इस चुनौती से पार नहीं पा सकी.

लेकिन वही कोहली हेडिंग्ले में मटमैला विकेट देखकर गच्चा खा गए. उन्होंने टॉस जीतकर पहले बल्लेबाज़ी चुनी और पूरी टीम महज 78 रन पर ढेर हो गई. उसके बाद उसी पिच पर इंग्लैंड के बल्लेबाज़ों ने 432 रनों का पहाड़ खड़ा कर दिया.

इसी मैच के टीवी प्रसारण के एक ब्रेक में हेडिंग्ले में 2002 में भारत-इंग्लैंड टेस्ट की झलकियां दिखाई गईं. तब भारत के कप्तान सौरव गांगुली ने टॉस जीता था और सीम गेंदबाज़ी की मदद वाले विकेट पर बल्लेबाज़ी करने का फ़ैसला किया था. उनकी टीम में सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड़ थे. इस मुक़ाबले में तीनों ने शतक बनाए और भारत एक पारी से जीता.

उस मुक़ाबले से उलट इस सिरीज़ में हमने देखा कि कोहली इंग्लैंड के 11वें नंबर के बल्लेबाज़ एंडरसन के सामने जसप्रीत बुमराह को लगातार बाउंसर डालने के लिए कह रहे थे, यह कोहली की सोच को स्पष्टता से दर्शाता है.

इस सोच में उकसाए जाने से पहले ही दुश्मनी और हमला करना महत्वपूर्ण दिखता है. कभी-कभी यह धारणा भी होती है कि केवल जीत पर्याप्त नहीं है. इसके साथ विपक्षी खिलाड़ियों का अपमान भी होना चाहिए. हालांकि इसका खेल में कोई स्थान नहीं है.

लॉर्ड्स टेस्ट के दौरान कोहली और टीम के सदस्यों ने इंग्लैंड के बल्लेबाज़ों की जिस तरह हंसी उड़ाई थी, वह सब स्टंप माइक़ से बाहर तक भी पहुंच रहा था.

मैंने उस समय अपने एक कॉलम में लिखा था, “क्या हम अपनी टीम के खिलाड़ियों को दूसरों पर धौंस जमाने वाले खिलाड़ियों के तौर पर देखना चाहते हैं जो 22 गज़ की क्रीज़ और दूसरी सभी चीज़ों पर अपना हक़ समझते हों या फिर जीत का कोई दूसरा तरीका भी है जो हमारे रवैए को इस तरह के व्यवहार की ओर नहीं ले जाता हो.”

इस आलेख पर लोगों की ढेरों प्रतिक्रियाएं आयीं. ज़्यादातर प्रशंसकों ने यही कहा कि कोहली को लेकर आपकी सोच ग़लत है. लेकिन बहुत सारे ऐसे लोग भी थे जो मान रहे थे कि कोहली ने सीमा लांघी है.

ज़्यादातर लोगों की प्रतिक्रिया यही थी कि क्या आप टेस्ट हारने वाला नरम कोहली चाहते हैं या जीतने वाला आक्रामक कोहली? हालांकि गालियां भी ख़ूब मिलीं, जीत पर कोई आलोचना नहीं सुनना चाहता.

बावजूद इसके कप्तानी हर समय आक्रमण करने के बारे में नहीं हो सकती. कोहली ने यह दिखा दिया है कि उनकी टीम को हल्के में नहीं लिया जा सकता. लेकिन बेहतर प्रदर्शन ही सबसे अच्छा बदला माना जाता है.

खेल में कहते ही हैं, ‘जो जीता वही सिकंदर’. ऐसे में भारत ये सिरीज़ जीतता है तो इन सबको लोग भूल जाएंगे. इस जीत में कोहली बल्ले से धमाल करते हैं तो फिर किसी को जीत के सिवा कुछ याद नहीं रहेगा, ये निश्चित है.