दवा निर्माण के अच्छे तरीकों के लिए भरोसेमंद सामान का इस्तेमाल जरूरी, एक्सीपिएंट्स और सॉल्वेंट्स पर भी हो निगरानी

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हाल में आई खबरों से सामने आया है कि भारत में कई दवा कंपनियां मानक से घटिया स्तर की निर्माण विधियों का प्रयोग कर रही हैं। इससे न केवल उनके ब्रैंड पर बुरा असर पड़ रहा है, बल्कि व्यापक रूप से पूरे दवा उद्योग की छवि भी खराब हो रही है। नतीजतन, सरकार ने दवा कंपनियों और विशेष रूप से एमएसएमई को अगले 6-12 माह में निर्माण के लिए बेहतर तरीके अपनाने या जीएमपी सर्टिफिकेट लेने का आदेश दिया है। आंकड़ों के अनुसार, कुल 10,500 निर्माताओं में से केवल दो हजारके पास ही “जीएमपी सर्टिफिकेट” है। इससे समस्या की गंभीरता का पता चलता है, जिसका समाधान सरकार को प्रयत्नकरकेखोजना है। दवा संबंधी उत्पादों में मानक और निर्माण-विधियों में सुधार पर निगरानी के साथ जीएमपी सर्टिफिकेट हासिल करने के लिए यह अभियान चलाया जा रहा है। इस बीच, सरकार को एपीआई, फाइनल फॉर्म्युलेशंस और दवा उत्पादों के निर्माण के लिए भारतीय दवा निर्माताओं द्वारा आईपीए, एसीटोन, एमडीसीऔरमेथनॉल जैसे फार्माकोपिया मोनोग्राफ्ड सॉल्वेंट्स/एक्सीपिएंट के प्रयोग पर भी अधिक सजग रुख अपनाना चाहिए। दि ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940की दूसरी अनुसूची के खंड-16 के अनुसार, फार्माकोपिया का मानक, इंडियन फार्माकोपिया कमीशन (आईपीसी) और राज्य की अन्य नियंत्रण इकाइयों द्वारा निर्धारित मानकों के अनुरूप बनाए रखना जरूरी होता है।

हालांकि, भारतीय दवा निर्माता नियम-कानूनों की अनदेखी करते हैं और एपीआई और फार्मुलेशंस में नॉन-फार्माकोपिया स्तर के सॉल्वेंट्स का प्रयोग करते हैं। भारतीय आईपीए निर्माताओं के अनुसार, आयात किए गए सस्ते आईपीए के प्रयोग से फार्माकोपिया मानकों में बताए गए कई महत्वपूर्ण मानक पूरे नहीं हो पाते, जैसे – यूवी एब्सॉर्बेंस टेस्ट, असंतृप्त हाइड्रोकार्बन्स की पहचान और तेज काम करने वाले कार्बोनिजेबल पदार्थ। इसके अलावा, चूंकि आईपीए और अन्य सॉल्वेंट्स जैसे – टॉल्यूनि, एसीटोन और अन्य का बड़ी मात्रा में आयात किया जाता है और उन्हें कांडला, मुंबई, विजाग और अन्य तटों पर मिश्रित स्थिति में रखा जाता है, इसलिए इस बात का काफी ज्यादा खतरा रहता है कि गैर-फार्मा (औद्योगिक/पेंट/क्लीनिंग) के लिए मंगवाए गए सॉल्वेंट्स फार्मा स्तर के सॉल्वेंट्स के साथ मिल जाएं। इससे दवाइयों में प्रयोग किए जाने के लिए अंतिम उत्पाद की सुरक्षा और असर से भी समझौता करना पड़ सकता है। अंतत:, गैर-फार्माकोपिया स्तर के सॉल्वेंट्स(नॉनफार्मालेबल), दवाइयों की गुणवत्ता पर असर डालकर लाखों मरीजों की सेहत और जान को ही खतरे में नहीं डालते, बल्कि भारतीय दवा कंपनियों और पूरे उद्योग-जगत की साख और ब्रैंड वैल्यू पर भी बुरा असर डालते हैं। वास्तव में, व्यापक रूप से देखें, तो इससे ‘दुनियाभर की फार्मेसी’ के रूप में भारत की ब्रैंड इमेज को भी झटका लगता है। इसलिएउन्हें’फार्मालेबलग्रेड’ काउपयोगकरनाचाहिए, नकिकेवल’फार्मापास’ ग्रेडका। राज्य की नियंत्रण इकाई के साथ काम कर चुके श्री विकास बयानी का कहना है, “ब्रैंड की अच्छी छवि तैयार करने के लिए किसी भी कंपनी को बरसों तक कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और ढेरों तरीके अपनाने पड़ते हैं। लेकिन, जीएमपी नियमों का पालन नहीं करने,सरकार की नजर में आने और मीडिया की सुर्खियां बन जाने से कुछ ही दिनों में ब्रैंड की छवि और कॉरपोरेट साख खराब हो सकती है। जीएमपी से संबंधित नियमों का पालन नहीं करने वाले और जरूरी सर्टिफिकेट नहीं लेने वाले निर्माताओं पर नजर रखने के साथ-साथ सरकार अब दवा कंपनियों1 द्वारा संचालित प्रत्येक प्लांट का विवरण भी हासिल कर रही है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

लेकिन सरकार को इसी तरह का अभियान उनके खिलाफ भी चलाना चाहिए, जो सॉल्वेंट के प्रयोग के नियम-कानूनों की ओर आंखें मूंदकर बैठे हुए हैं। वास्तव में, फार्माकोपिया स्तर की विश्वसनीय सामग्री का प्रयोग करना, किसी भी प्रकार की अच्छी निर्माण विधि को लागू करने की दिशा में पहला कदम होगा। हम पहले ही देख चुके हैं कि हाल में विदेश में किस प्रकार अनेक दवा उत्पाद नियंत्रण इकाइयों की निगरानी में आए हैं। इससे भारतीय दवा उद्योग ही नहीं, बल्कि दुनिया में अग्रणी दवा निर्माता के रूप में भारत की भी साख और छवि पर धब्बा लगा है।आजकल नकली दवाइयों के कारण दवा कंपनियों की घटती ब्रैंड वैल्यू से भारतीय निर्यात पर भी बुरा असर पड़ रहा है।1” श्री बियानी ने आगे कहा, “पिछले कई वर्षों से, हम सरकार से निवेदन कर रहे थे कि दवा निर्माण में भारतीय फार्माकोपिया (आईपी) या अंतर्राष्ट्रीय फार्माकोपिया द्वारा निर्धारित मानकों को सख्ती से लागू कराया जाए। दवा निर्माताओं के ऑडिट / निगरानी के साथ-साथ यह जरूरी होगा कि दवा निर्माताओं को एक्सीपिएंट, सामग्री, सॉल्वेंट्स आदि देने वाले लोगों को भी निगरानी के दायरे में लाया जाए, जिससे पूरे उद्योग-जगत को इसका फायदा मिल सके। दूसरी ओर, देश में प्रमाणिक और अच्छी गुणवत्ता वाले फार्माकोपिया ग्रेड के एक्सीपिएंट्स और सॉल्वेंट्स का प्रयोग करने से भारतीय दवा निर्माताओं के बीच अच्छी निर्माण विधियां सुनिश्चित करने में सरकार के हाथ तो मजबूत होंगे ही, भारत के महत्वाकांक्षी आत्मनिर्भर अभियान को भी बढ़ावा मिलेगा।”