सारुल पूजा के माध्यम से आदिवासी समुदाय ने दिया प्रकृति को बचाने का सन्देश 

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जलपाईगुड़ी के डेंगुआझार चाय बागान में पत्तियों और शॉल, महुआ के फूलों से सजी प्रकृति के नए रूप का स्वागत करने के लिए प्राचीन परंपरा का पालन करते हुए सारुल पूजा आयोजित की गई। यह सारुल पूजा जलपाईगुड़ी के डांगलेन ग्राम सभा समिति की पहल के दूसरे वर्ष आयोजित की गई थी. आदिवासियों की प्रकृति प्रेम के प्रतीक के रुप में सारुल या सरहुल पर्व मनाया जाता है।

यह आदिवासी समुदाय का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। चूंकि यह पर्व रबी की फसल कटने के साथ ही आरंभ होता है। इसलिए इसे नए वर्ष के आगमन के रुप में भी मनाया जाता है।इस पर्व में साल व सखुआ वृक्ष की विशेष तौर पर पूजा की जाती है। दरअसल यह भारत में प्रकृति एवं वृक्षों की पूजा की पुरानी परम्परा का ही हिस्सा है। ऋतुराज बसंत के आगमन के साथ ही सारा आदिवासी समुदाय पर्व की प्रतीक्षा करने लगता है।आदिवासी समुदाय के लोग मादल बजाकर इस पूजा का आनंद लेते देखे गए।

इस समय, पूरे डेंगुआझार चाय बागान में चाय के पेड़ों की शाखाओं, शॉल और महुआ से नई पत्तियां आ रही हैं। हवा ताज़ी शॉल और महुआ के फूलों की खुशबू से भर गई है।भीषण गर्मी में भी प्रकृति अपनी व्यवस्था बनाना नहीं छोड़ती। आदिवासी समुदाय के लोग इस पूजा में प्रार्थना करते हैं कि प्रकृति को नुकसान न हो। उन्होंने कहा कि दिन प्रतिदिन प्रकृति का विनाश हो रहा है। हम प्रकृति पूजा के माध्यम से प्रकृति की रक्षा का संदेश दे रहे हैं। पूजा के अवसर पर आयोजकों द्वारा जुलूस का आयोजन किया गया था।