250 साल पुरानी अरण्य काली पूजा आज भी निभा रही है सुंदरबन के जंगल की परंपर

उत्तर 24 परगना जिले के बसीरहाट उपमहकमा अंतर्गत शालिपुर ग्राम पंचायत के खलिसादी गांव में स्थित है एक रहस्यमय और जगरत अरण्य काली मंदिर। सुंदरबन के इस सीमावर्ती गांव में बीते ढाई सौ वर्षों से चली आ रही है एक प्राचीन परंपरा—अरण्य काली पूजा। कहा जाता है कि जब ये इलाका पूरी तरह घने जंगलों (अरण्य) से घिरा था, तब गांव की मंगलकामনায়  एक तपस्वी साधु ने इस जंगल के बीच शुरू की थी माँ काली की पूजा।

वर्षों बाद, यह पूजा स्थानीय मजूमदार परिवार के हाथ आया और फिर जब वह परिवार यहां से स्थानांतरित हो गया, तो उन्होंने पूजा की ज़िम्मेदारी सौंप दी खलिसादी गांव के भट्टाचार्य परिवार को। तब से आज तक उसी परंपरा का पालन करते हुए भट्टाचार्य परिवार के हाथों ही मां अरण्य काली की पूजा होती आ रही है। भट्टाचार्य परिवार के सदस्यों के अनुसार, आज भी प्राचीन रीति-रिवाज  के अनुसार पूजा की जाती है। पूजा के दिन पाँच प्रकार के भोग बनते हैं, जिसे हजारों श्रद्धालु ग्रहण करते हैं। वहीं, एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद परंपरा—पांठा (बकरी) बलि—भी आज तक निभाई जाती है।

स्थानीय जनश्रुतियों के अनुसार, मां अरण्य काली अत्यंत जाग्रत देवी हैं। लोगों का मानना है कि मां स्वयं जंगल के किनारे स्थित एक स्नान तालाब में स्नान कर लाल पाड़ की साड़ी पहनकर मंदिर में प्रवेश करती हैं और कई बार उन्होंने अपने भक्तों को साक्षात दर्शन भी दिए हैं। खास मान्यता है कि जो भी भक्त मां से मनोकामना मांगते हैं, वे कभी खाली हाथ नहीं लौटते। श्रद्धालु मंदिर में आकर एक सूत का धागा बांधकर मन्नत मांगते हैं और मन्नत पूरी होने पर फिर मां के दर्शन करने लौटते हैं। भट्टाचार्य परिवार ने बताया कि पूजा से एक सप्ताह पहले पुरानी मूर्ति का विसर्जन किया जाता है, और पूजा के दिन शुभ मुहूर्त में मां की नई मूर्ति स्थापित कर विधिपूर्वक पूजा की जाती है। इस वर्ष पूजा की ज़िम्मेदारी परिवार के पार्थ भट्टाचार्य के पास है। खलिसादी गांव ही नहीं, बल्कि सुंदरबन क्षेत्र के अन्य गांवों और पश्चिम बंगाल के कोने-कोने से भक्त अरण्य काली के दर्शन के लिए हर साल यहां पहुंचते हैं।

By Sonakshi Sarkar