मई 1940 में फ़्रांस के बंदरगाह शहर डनकर्क में नौ दिनों तक चले इस बचाव अभियान में समुद्र के तटों और बंदरगाह से मित्र देशों के 3,38,000 से अधिक सैनिकों को जर्मन सेना के चंगुल से बचाकर निकाला गया था.
यूरोपीय सैनिकों के इस जत्थे में भारतीय सैनिक मेजर मोहम्मद अक़बर ख़ान भी थे.
उन्होंने 28 मई को सेना के जत्थे में शामिल भारत के 300 और ब्रिटेन के 23 सैनिकों की टुकड़ी का नेतृत्व किया था. यह टुकड़ी ईस्ट मोल के बंदरगाह पर बमबारी से तबाह क़रीब एक मील लंबी लकड़ी की जेट्टी के पास तैनात थी. इसे क्रिस्टोफ़र नोलन की 2017 की ऐतिहासिक फिल्म ‘डनकर्क’ में भी दिखाया गया.
छह फ़ुट लंबे मेजर ख़ान युद्ध के बाद भारत लौट आए. उसके बाद जब अगस्त 1947 में भारत दो देशों में बंटा तो वे नए बने पाकिस्तान की सेना में आला अधिकारी बने. उन्हें पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना का सैन्य सहायक बनाया गया. उन्होंने 40 से ज़्यादा किताबें लिखीं और चीन के दौरे पर उसके चेयरमैन माओत्से तुंग से भी मुलाक़ात की.
ब्रिटिश इतिहासकार बाउमैन का अथक प्रयास
ब्रिटिश इतिहासकार घी बाउमैन का कहना है कि डनकर्क से लौटने वाले मेजर ख़ान जैसे तमाम भारतीय सैनिकों को पूरी तरह भुला दिया गया. बाउमैन ने सैनिकों के वंशजों का पता लगाने के लिए पांच देशों में पांच साल बिताए. उन्होंने उन सैनिकों के परिवारों से मिली तस्वीरों और दस्तावेज़ों को ढूंढा और उनके परिजनों से बात भी की.
भारत के सैनिक 25वीं एनिमल ट्रांसपोर्ट कंपनी का हिस्सा थे. उन्होंने ब्रिटिश सेना की मदद के लिए अपने खच्चरों के साथ 7,000 मील (11,265 किमी) का सफर तय किया था. उन सैनिकों में से चार को छोड़कर सभी मुसलमान थे.
वे सब खाकी वर्दी, टिन का हेलमेट, टोपी और पगड़ी पहनते थे. उनके पास कोई हथियार नहीं था क्योंकि फ़्रांस पहुंचने के छह महीने पहले जब उन्होंने पंजाब छोड़ा था, तब उन्हें कोई हथियार नहीं दिया गया था.
खच्चरों से काम कराने के लिए गए थे फ़्रांस
फ़्रांस में कड़ाके की सर्दी में ब्रिटिश सेना का सामान ढोने के लिए मोटर गाड़ियों की बजाय खच्चरों की ज़रूरत थी. चूंकि उनके पास “जानवरों से काम कराने का कौशल” नहीं था, इसलिए उनकी मदद के लिए भारतीय सैनिकों को वहां भेजा गया था.
युद्ध के दौरान कॉमनवेल्थ देशों के क़रीब 50 लाख सैनिक ब्रिटिश साम्राज्य की सेना में शामिल किए गए थे. इनमें से लगभग आधे दक्षिण एशिया के थे. डनकर्क में भारतीय सैनिकों के साथ जो हुआ था, उसके बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है.
इतिहासकार घी बाउमैन कहते हैं, “उन सैनिकों और उनके साथियों की कहानियां, इस युद्ध की शानदार अनकही कहानियों में से एक हैं”. उनकी हाल में एक किताब ‘द इंडियन कंटिनजेंट: द फ़ॉरगॉटन मुस्लिम सोल्जर्स ऑफ़ द बैटल ऑफ़ डनकर्क’ आई है.
उदाहरण के लिए चौधरी वली मोहम्मद को लें, जिन्होंने बाद में बताया था, “डरावने परिंदों की तरह उड़ान भरते जर्मन विमान हम पर गोलीबारी कर रहे थे… मैं 15 दिनों तक सो नहीं सका.” वली मोहम्मद और उनका दल 23 मई को डनकर्क पहुंचा था.
वे कहते हैं, “हमने सोचा भी नहीं था कि हम डनकर्क से ज़िंदा वापस आएंगे… हर तरफ़ आग लगी थी. पूरा डनकर्क जल रहा था. आग इतनी तेज़ थी जैसे दिन की रोशनी हो.”
वली मोहम्मद ने बाद में उस घटना को याद करते हुए बताया, “हमें जिन जहाज़ों पर सवार होना था, वो डूब चुके थे. हम समुद्र किनारे पहुंचे तो पाया कि जहाज़ डूब गया था. हमें फ़ौरन जंगल में वापस भागना पड़ा”. वली मोहम्मद और उनकी टुकड़ी को दो दिन बाद वहां से बचाकर निकाला गया.
इसी तरह जमादार मौलादाद ख़ान थे. उन्हें दुश्मन की ज़मीन और हवा से गोले बरसाने के दौरान अपने लोगों और जानवरों की हिफ़ाज़त के लिए, “बेजोड़ साहस, धैर्य और निर्णय क्षमता” का परिचय देने के लिए सम्मानित किया गया था.
‘इनका मूल्यांकन इनकी संख्या से करना ग़लत‘
बाउमैन कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि भारतीय सैनिकों का महत्व उनकी संख्या से आंकना चाहिए. तथ्य ये है कि वे वहां एक मौलवी और पगड़ी के साथ, भारत और ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक के रूप में मौजूद थे. दुनिया देखने का उनका नज़रिया भी पूरी तरह अलग था.”
इन जवानों ने 1940 का ज़्यादातर समय उत्तरी फ़्रांस के एक गांव में बिताया, जो लिली नामक शहर के ठीक उत्तर में था. कठिन सर्दी का सामना करते हुए, वे वहां कसरत करते और अपने खच्चरों की देखभाल करते. वहां वे “साप्ताहिक ज़िमखाना” में स्थानीय ग्रामीणों, अचंभित दर्शकों से मिले. वहां उन्होंने खच्चरों की पीठ पर करतब दिखाए और भांगड़ा डांस भी किया.
जर्मनी ने इन निहत्थे सैनिकों को बंदी बना लिया
बाउमैन बताते हैं कि मई में जब जर्मन फ़ौज ने फ़्रांस पर हमला कर दिया तो हालात तेज़ी से बदले और “दो सप्ताह के भीतर ये सैनिक, एक सुव्यवस्थित, अनुशासित, बहु-राष्ट्रीय सेना का हिस्सा बनने से लेकर तट पर अफ़रातफ़री भरी वापसी का हिस्सा बने.”
वे बताते हैं कि डोवर पहुंचने पर भारतीय सैनिकों ने पंजाबी लोक संगीत बजाया जिसकी धुन पर “कई ब्रिटिश दर्शक भी डांस में शामिल हो गए.”
भारतीय सैनिकों का ब्रिटिश घरों में स्वागत किया गया और उन्होंने उनके दिलों में जगह बनाई. बाद में उनसे प्रभावित खिलौना सैनिक भी बनाए गए.
ये सैनिक भारत से निकलने और युद्ध का ख़ात्मा होने पर स्वदेश लौटने तक ब्रिटेन और फ़्रांस के गांवों और कस्बों में घूमे. ऐसा करने से उनकी ज़िंदगी बदल गई. कुछ को तो जर्मनों ने पकड़ लिया और उन्हें फ़्रांस, जर्मनी, इटली और पोलैंड के युद्धबंदी शिविरों में क़ैद रखा गया.
डनकर्क से तक़रीबन 300 भारतीय सैनिकों को बचाया गया.
तो फिर क्यों द्वितीय विश्व युद्ध की किताबों और फिल्मों में इन सैनिकों के योगदान को भुला दिया गया, जबकि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने 1940 के अपने एक मशहूर भाषण में “चमत्कारी रिहाई” बताया था?
बाउमैन की नज़र में इसकी एक वजह ये हो सकती है कि वे “सप्लाई के काम में लगे थे, न कि अग्रिम मोर्चे की लड़ाई में और इस तरह के सहयोगी सिपाहियों को शायद ही कभी याद किया जाता है.”
बाउमैन कहते हैं,”लोगों की याददाश्त छोटी होती है और लोग बहुत जल्द भूल जाते हैं. हर वज़ह को जान पाना मुश्किल है.”
“विश्व युद्ध के बाद का माहौल यूरोप और भारत में बहुत अलग था. यूरोप में पुनर्निर्माण और नए समाजों को बनाने की ज़रूरत थी. ध्यान भविष्य पर था. आम लोगों की सोच में युद्ध की सीमित निशानियों को सहेजा गया, ख़ासतौर से ऐसी यादें जिनमें गोरे चेहरे और अमीर पृष्ठभूमि के लोग शामिल होते थे.”
“भारत में आज़ादी और उसके साथ हुए बंटवारे की प्रक्रिया को प्राथमिकता मिली. इतिहास हमेशा जारी रहने वाली और कुछ उजागर करने की एक प्रक्रिया है.”