जलपाईगुड़ी के गोशाला मोड़ स्थित देवी चौधुरानी श्मशान काली मंदिर में आज सुबह से ही काली पूजा की तैयारियां ज़ोरों पर हैं। मंदिर के पुजारी माँ को श्रृंगार में व्यस्त हैं और भक्तों की भीड़ सुबह से ही दर्शन के लिए उमड़ रही है। यह मंदिर उत्तर बंगाल के सबसे रहस्यमय और ऐतिहासिक पूजा स्थलों में एकहै।माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना स्वयं देवी चौधुरानी ने की थी। रूकरूका नदी के किनारे स्थित यह मंदिर चारों ओर से जंगल से घिरा है। आसपास ही है एक प्राचीन श्मशान, जो इस स्थान को और भी रहस्यमय बना देता है। अनोखी परंपरा और पूजा विधि इस मंदिर में माँ काली की पूजा श्मशान काली रूप में होती है, जो आमतौर पर दक्षिणा काली की पूजा से अलग है। माँ के एक हाथ में नरमुंड और दूसरे हाथ में सुरा पात्र है—माँ के इस स्वरूप में कोई शस्त्र नहीं है। यहाँ पूजा में माँ को मांसाहारी भोग अर्पित किया जाता है, जिसमें विशेष रूप से शोल और ब्वाल मछली शामिल होती है। पूजा की रात बलि की परंपरा आज भी जारी है। मंदिर समिति की ओर से एक बकरा बलि स्वरूप चढ़ाया जाता है, वहीं मानता के अनुसार भी कई भक्त बलि देते हैं। बलि का मांस भी माँ को भोग के रूप में अर्पित किया जाता है।
पुजारी सुभाष चौधुरी बताते हैं कि पूजा के समय माँ के हाथ के पात्र में सुरा (मदिरा) भी अर्पित की जाती है। पहले यहाँ मिट्टी की मूर्ति से पूजा होती थी, लेकिन 1997 में जयपुर, राजस्थान से लाए गए काले काष्ठ पत्थर की मूर्ति की स्थापना की गई, और तब से उसी प्रतिमा की पूजा होती है। मंदिर का इतिहास और रहस्य जनश्रुति है कि देवी चौधुरानी इसी मंदिर के पास से बहने वाली रूकरूका नदी के रास्ते बजरे (नाव) से आया-जाया करती थीं। पहले माँ की पूजा एक विशाल बटवृक्ष (बरगद के पेड़) के नीचे होती थी। उस समय डेंगूयाझाड़ चाय बागान के आदिवासी लोग माँ को विशालाक्षी रूप में पूजते थे। बाद में कुछ समय के लिए जलपाईगुड़ी के राज परिवार ने इस पूजा की जिम्मेदारी ली, लेकिन जंगली इलाके और कठिन परिस्थितियों के कारण वे इसे अधिक दिन तक जारी नहीं रख सके। इसके बाद स्थानीय लोगों ने पूजा की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली और एक पक्का मंदिर भी बनाया। माना जाता है कि जहाँ आज माँ की मूर्ति की वेदी है, वहाँ पहले एक कपिकल (पुली सिस्टम) हुआ करता था, जिसे घुमाने पर एक गुप्त सुरंग का द्वार खुलता था, जिससे होकर लोग पांडापाड़ा तक पहुँच सकते थे। मंदिर परिसर में आज भी कई गुफाओं के अवशेष और पुराने नाव लंगर के खंभे मौजूद हैं।
मंदिर के पास स्थित बरगद का पेड़ 400 वर्षों से भी अधिक पुराना है—ऐसा दावा मंदिर समिति कर रही है। इसी कारण वे इस स्थान को हेरिटेज टैग देने की माँग भी कर रहे हैं। इतिहास में दर्ज तंत्र साधना और कपालिक की कहानी इस मंदिर में पंचमुण्डी आसन भी स्थित है, जहाँ कौशिकी अमावस्या की रात को तांत्रिक साधना की जाती है। कभी यहाँ नयन नामक एक कपालिक रहता था जिसने पाटू दास नामक व्यक्ति की बलि दी थी। इसके लिए 1890 में उसे फांसी दी गई थी—इस घटना का उल्लेख जलपाईगुड़ी जेल के दस्तावेजों में भी दर्ज है। भक्तों का तांता और काली पूजा की धूम काली पूजा के अवसर पर न केवल उत्तर बंगाल के विभिन्न जिलों से, बल्कि असम से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु इस मंदिर में दर्शन और पूजा के लिए आते हैं। मंदिर समिति के सचिव, देवाशीष सरकार ने कहा कि देवी चौधुरानी का इस मंदिर से गहरा संबंध है और रूकरूका नदी के माध्यम से देवी का बजरे से आना-जाना इतिहास में दर्ज है। इस प्राचीन, रहस्यमय और शक्तिशाली श्मशान काली मंदिर में हर वर्ष की तरह इस बार भी काली पूजा गंभीर तांत्रिक विधि और शक्ति आराधना के साथ मनाई जा रही है।
