10 मई 2021 को शुरू इसराइल-फ़लस्तीनी युद्ध 11 दिनों तक चला और इसमें साठ से ज़्यादा फ़लस्तीनी बच्चों समेत 248 नागरिकों की मौत हुई और दो हज़ार लोग घायल हुए. इसी दौरान फ़लस्तीनी रॉकेटों से दो बच्चों समेत 12 इसराइली नागरिकों की भी मौत हुई. अब युद्धविराम की घोषणा हो चुकी है
इसराइल-फ़लस्तीनी विवाद की कहानी के शुरुआत से ही यहूदियों के बहाने महात्मा गांधी की इस पर गहरी नज़र रही थी. वे ख़ास तौर पर यूरोप में यहूदियों की दशा से काफ़ी प्रभावित हुए थे.
1938 में सीमांत प्रदेश के दौरे से लौटने के बाद उन्होंने इस विषय पर अपना पहला संपादकीय ‘ईसाइयत के अछूत’ नाम से लिखा, “मेरी सारी सहानुभूति यहूदियों के साथ है. मैं दक्षिण अफ्रीका के दिनों से उनको क़रीब से जानता हूं. उनमें से कुछ के साथ मेरी ताउम्र की दोस्ती है और उनके ही माध्यम से मैंने उनकी साथ हुई ज़्यादतियों के बारे में जाना है. ये लोग ईसाइयत के अछूत बना दिए गये हैं. अगर तुलना ही करनी हो तो मैं कहूंगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने जैसा व्यवहार किया है वैसा हिंदुओं ने अछूतों के साथ जैसा व्यवहार किया है.” “निजी मित्रता के अलावा भी यहूदियों से मेरी सहानुभूति के व्यापक आधार हैं. लेकिन उनके साथ की गहरी मित्रता मुझे न्याय देखने से रोक नहीं सकती है. इसलिए यहूदियों की ‘अपना राष्ट्रीय घर’ की मांग मुझे जंचती नहीं है. इसके लिए बाइबल का आधार ढूंढा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फ़लस्तीनी इलाक़े में लौटने की बात उठाई जा रही है. लेकिन जैसे संसार में सभी लोग करते हैं वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जन्मे हैं और जहां से अपनी रोजीरोटी कमाते हैं, उसे ही अपना घर मानें?”