मोदी कहते हैं देश आत्मनिर्भर बने, दीनदयाल उपाध्याय कहते थे जनता आत्मनिर्भर बने

आज दीनदयाल उपाध्याय की जयंती है और उनके साथ एक बड़ी बात ये थी कि सरकार किसी की भी हो, वो वही बात करते थे, जो उन्हें सही लगती थी. कभी भी विचारों में फायदे या नुकसान के लिए उन्होने बदलाव नहीं किया. जनता को आत्मनिर्भर रहने के लिए कौन कह सकता है? सोचिए आज कोई विपक्ष का नेता ये बात कहे कि हर बात के लिए सरकार की तरफ मुंह मत ताकिए, बल्कि खुद आत्मनिर्भर बनिए तो सोचिए जनता उसको क्या कहेगी?

आज के विपक्ष में आदर्शवादी नेताओं की कमी?
वैसे क्या किसी विपक्षी नेता में आज इतनी हिम्मत है कि वो जनता से इस तरह की कोई मांग कर सकें? उनकी हर मांग, हर सवाल सरकार से ही होती है, यहां तक सही मुद्दे पर भी तारीफ के बजाय वो सरकार पर ही सवाल उठाते हैं, जबकि दीनदयाल उपाध्याय विपक्ष में रहते हुए भी सरकार की मजबूरियां और सीमाएं समझते थे, इसलिए जनता को भी सलाह देने से नहीं चूकते थे.

आज पढ़िए उनका वो लेख जो उन्होंने नेहरू सरकार के दौरान लिखा था, ये लेख दीनदयाल उपाध्याय की ‘पॉलटिकल डायरी’ से लिया गया है, जो उन्होंने 4 अगस्त 1959 को लिखा था, जिसका शीर्षक है ‘सरकार पर अधिकाधिक निर्भरता’

राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने हैदराबाद में भाषण करते हुए प्रत्येक बात या वस्तु के लिए सरकार की ओर देखने की मनोवृत्ति की निंदा की है. उन्होंने यह मत व्यक्त किया कि जनता को आत्मनिर्भर बनना चाहिए और अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकार पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. इस सम्बंध में उन्होंने एक विकेन्द्रीकरण पद्धित की संस्तुति की, जिसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को अक्षुण्ण रख सके. उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ताओं से अपने प्रयास चालू रखने का अनुरोध किया और कहा कि उन्हें इस भावना का- जो स्वतंत्रता के बाद भारी पैमाने पर विकसित हुई है- परित्याग कर देना चाहिए कि उनका कार्य पूरा हो गया है.

‘भारतीय जीवन शैली और हिंदू परिकल्पना’
हर विचारशील व्यक्ति जिसके मन में भारतीय जीवनपद्धति की कुछ कल्पना है, राष्ट्रपति के कथन से सहमत होगा. हिंदू परिकल्पना के अनुसार सरकार के अत्यंत सीमित कार्य हैं. इस तथ्य के अतिरिक्त कि मनुष्य से जिन चार पुरुषार्थों के पालन की अपेक्षा है, राजनीति उनमें से एक पुरुषार्थ का केवल एक अंग है, यह माना जाता है कि सरकार और प्रशासन के काम स्थानीय स्तर पर चलते हैं. भारत में केन्द्रीयकरण का लक्ष्य प्रशासन के व्यवहारिक क्षेत्र की अपेक्षा भावनात्मक क्षेत्र में अधिक रहा. जबकि राष्ट्रीय और सांस्कृतिक एकता की एक अंतरंग भावना यहां मौजूद थी, वह स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार से अपनी अभिव्यक्ति करती थी. इससे ना केवल लोग आत्मविश्वासी बने, बल्कि सभी क्षेत्रीय तथा अन्य दलों के समर्थकों के साथ हर व्यक्ति के लिए पूर्ण विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ. इसलिए हिंदुत्व अपने स्वरूप के बारे में इतनी विविधता और विस्तार से ऐसा चित्र प्रस्तुत करता है कि सामान्य पर्यवेक्षक को यह समन्वय और एकता से रहित प्रतीत हो सकता है.

By Editor

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